पाखंड पर कबीर के दोहे
प्रेम न बारी उपजे प्रेम न हाट बिकाए !!
राजा प्रजा जो ही रुचे सिस दे ही ले जाए !!
जिन घर साधू न पुजिये घर की सेवा नाही !!
ते घर मरघट जानिए भुत बसे तिन माही !!
जब मैं था तब हरी नहीं अब हरी है मैं नाही !!
सब अँधियारा मिट गया दीपक देखा माही !!
पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत!!
अब पछताए होत क्या चिडिया चुग गई खेत !!
नहाये धोये क्या हुआ जो मन मैल न जाए !!
मीन सदा जल में रहे धोये बास न जाए !!
प्रेम पियाला जो पिए सिस दक्षिणा देय !!
लोभी शीश न दे सके नाम प्रेम का लेय !!
कबीरा सोई पीर है जो जाने पर पीर !!
जो पर पीर न जानही सो का पीर में पी !!
कबीरा ते नर अँध है गुरु को कहते और !!
हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहीं ठौर!!
कबीर सुता क्या करे जागी न जपे मुरारी !!
एक दिन तू भी सोवेगा लम्बे पाँव पसारी !!
नहीं शीतल है चंद्रमा हिम नहीं शीतल होय !!
कबीर शीतल संत जन नाम सनेही होय !!
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय !!
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय !!
राम बुलावा भेजिया दिया कबीरा रोय !!
जो सुख साधू संग में सो बैकुंठ न होय !!
राम बुलावा भेजिया दिया कबीरा रोय !!
जो सुख साधू संग में सो बैकुंठ न होय !!
माखी गुड में गडी रहे पंख रहे लिपटाए !!
हाथ मेल और सर धुनें लालच बुरी बलाय !!
ज्ञान रतन का जतन कर माटी का संसार !!
हाय कबीरा फिर गया फीका है संसार !!
कुटिल वचन सबसे बुरा जा से होत न चार !!
साधू वचन जल रूप है बरसे अमृत धार !!
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